Saturday, October 15, 2016

“ख़ून अपना हो या पराया हो"

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले-आदम *का ख़ून है आख़िर
जंग मग़रिब** में हो कि मशरिक** में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे-तामीर^ ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त* फ़ाक़ों से तिलमिलाती** है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों^ पे रोती है
इसलिए ऐ शरीफ इंसानो
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है
-    साहिर लुध्यानवी
*Huminty, **East-west,^spirit of construction

*life,**wrecked by starvation , ^corpses